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Subrat SaurabhAuthor of Kuch Woh Palनाम- डा. राजेश कुमार मीणा पिता का नाम - रामप्रसाद मीणा जन्म दिनांक - 13.05.1984. जन्म स्थान - महिदपुर रोड़ पढ़ाई - पी.एचडी (परमार कालीन शासकों के लोकहित कार्य एक ऐतिहासिक अध्ययन) - एम.सी.पी. डिपार्टमेन्ट नाम - प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति Read More...
नाम- डा. राजेश कुमार मीणा
पिता का नाम - रामप्रसाद मीणा
जन्म दिनांक - 13.05.1984.
जन्म स्थान - महिदपुर रोड़
पढ़ाई - पी.एचडी (परमार कालीन शासकों के लोकहित कार्य एक ऐतिहासिक अध्ययन)
- एम.सी.पी.
डिपार्टमेन्ट नाम - प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व अध्ययनशाला, विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन, मध्यप्रदेश।
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भूमिका &पर्वतराज हिमालय से भी प्राचीन पर्वत शिरोमणि विंध्य की मेखला-कार्ट प्रदेश के पठार में बने-बसे भू-प्रदेश में वैदिक मल्व (अर्थवेद) और उसके पश्चात् मालव के नाम से विख्यात म
भूमिका &पर्वतराज हिमालय से भी प्राचीन पर्वत शिरोमणि विंध्य की मेखला-कार्ट प्रदेश के पठार में बने-बसे भू-प्रदेश में वैदिक मल्व (अर्थवेद) और उसके पश्चात् मालव के नाम से विख्यात मालवा त्रि-भुजाकार में बसा हुआ है। मालवा का उल्लेख पाणिनी की अष्टाध्यायी में आयुधजावी संघ के रूप में हुआ है पंतजलि के महाभाष्य में भी इनका उल्लेख है छटी सदी ई.पू. में मालवा प्राचीन अवन्ति जनपद के रूप में जाना जाता था। जहाँ परमारों ने लगभग 500 वर्ष तक मालवा सहित आसपास के प्रदेशों पर शासन किया। परमार सम्राज्य पूर्व में विदिशा और उदयपुर तक तथा पश्चिम में अहमदाबाद क्षेत्र जिसमें हरसोल, मोडसा, महडी तक फैला हुआ था। इसके अतिरिक्त दक्षिण में नर्मदा तक और उत्तर में कोटा सहित राजस्थान के कुछ और प्रदेश उनके राज्य में सम्मिलित थे।
परमार शासकों तथा जनसाधारण में धर्म के प्रति आस्था के कारण इस काल में अनेक देवी-देवताओं की पूजा, व्रत, दर्शन तथा उत्सव आदि के प्रमाण मिलते हैं।
परमार स्थापत्यकला
मालवा के इतिहास में परमार राजवंशों ने नवीं शताब्दी ई. से तेरहवीं शताब्दी ई. के प्रारंभ तक शासन किया। इनका मालवा के इतिहास में विशिष्ट स्थान है। अपने पाँच शत
परमार स्थापत्यकला
मालवा के इतिहास में परमार राजवंशों ने नवीं शताब्दी ई. से तेरहवीं शताब्दी ई. के प्रारंभ तक शासन किया। इनका मालवा के इतिहास में विशिष्ट स्थान है। अपने पाँच शताब्दियों के राजनीतिक इतिहास में इनका साम्राज्य-मालवा के पूर्व में भोपाल क्षेत्र के विदिशा व उदयपुर, पश्चिम क्षेत्र में हरसोल, मोडासा, महुड़ी तक दक्षिण में नर्मदा तथा होशंगाबाद क्षेत्र एवं उत्त्तर में कोटा क्षेत्र तक विस्तारित था। परमारों की कुछ शाखाएँ तो राजस्थान में अबुत मण्डल, जालोर एवं बागड तक में अपनी राज्य सत्त्ता स्थापित करने में सफल हो गई थी।
स्थापत्य पर अनेक स्वतंत्र ग्रंथों की रचना हुई है तथा इसकी विभिन्न तकनीकों तथा इमारतों के विभिन्न रूपों के विवरण पौराणिक ग्रंथों से लेकर परवर्ती संस्कृत-प्राकृत ग्रंथों में तथा अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में उपलब्ध है।
प्रारम्भिक वास्तु हड़़प्पा सभ्यता के युग से लेकर तेरहवी सदी तक भारत में धार्मिक और लौकिक स्थापत्य के बहुसंख्यक रूप निर्मित हुए। इसके साथ ही सम्पूर्ण भारत असंख्य स्मारकों का एक विशाल संग्रहालय भी है। इससे स्पष्ट है कि विश्व की प्राचीन वास्तुकला में भारत का गौरवपूर्ण स्थान है। परमार वंश के राजा निःसन्देह महान निर्माणकर्ता थे।
उन्होंने साहित्य एवं ललित कलाओं को तो प्रोत्साहन दिया ही इसके साथ-साथ स्थापत्य के क्षेत्र में महत्वूपर्ण निर्माण कराये हैं। इस काल के विभिन्न भग्नावशेष उनके योगदान की पुष्टि करते हैं।
मालवा क्षेत्र में परमारों ने लगभग 500 वर्ष तथा आस-पास के प्रदेशों पर शासन किया। परमार साम्राज्य की भौगोलिक पृष्ठभूमि उनके अभिलेखों से भी स्पष्ट होती है।
आज जिस क्षेत्र को मा
मालवा क्षेत्र में परमारों ने लगभग 500 वर्ष तथा आस-पास के प्रदेशों पर शासन किया। परमार साम्राज्य की भौगोलिक पृष्ठभूमि उनके अभिलेखों से भी स्पष्ट होती है।
आज जिस क्षेत्र को मालवा कहते है उसका क्षेत्रफल लगभग 47760 वर्ग किलोमीटर है, इसकी ऊँचाई समुद्र सतह से 1500 से 2000 फीट है। यह पहले विशाल वन्य प्रदेश था, जिसका क्षेत्रफल लगभग 94,689 वर्ग कि.मी. था, जिसमें महाकाल वन भी सम्मिलित था। यह वन अत्यन्त विस्तृत था, जिसका वर्णन पौराणिक ग्रंथों में भी मिलता है। इस भू-भाग के बीच-बीच में पहाडियाँ, खुले मैदान, विशाल सदानीरा नदियाँ, विशाल घने वृक्ष थे, ऐसी उर्वर भूमि पर यह प्रदेश बसा हुआ था।
भूमिका - लगभग पाँच शताब्दियों के राजनीतिक इतिहास में परमारों का साम्राज्य मालवा के पूर्व में भोपाल क्षेत्र के विदिशा व उदयपुर, पश्चिम क्षेत्र में हरसोल, मोडासा, महुड़ी तक दक्षिण
भूमिका - लगभग पाँच शताब्दियों के राजनीतिक इतिहास में परमारों का साम्राज्य मालवा के पूर्व में भोपाल क्षेत्र के विदिशा व उदयपुर, पश्चिम क्षेत्र में हरसोल, मोडासा, महुड़ी तक दक्षिण में नर्मदा तथा होशंगाबाद क्षेत्र एवं उत्तर में कोटा क्षेत्र तक विस्तारित था। परमारों की कुछ शाखाएँ तो राजस्थान में अबुत मण्डल, जालोर एवं बागड़ तक में अपनी राज्य सत्ता स्थापित करने में सफल हो गई थी।
परमार शासकों के आर्थिक कार्य के अन्तर्गत किले तथा महल निर्माण, दुर्ग निर्माण, सुरक्षा परकोटा निर्माण, कला केन्द्र निर्माण, नगर निर्माण, जल व्यवस्था, कृषि व्यवस्था, मुद्रा के लिये टकसाल, उघोग तथा धन्धे, प्रशासनिक विभाग तथा सुरक्षा व्यवस्था, न्याय व्यवस्था तथा मनोरजंन आदि को आर्थिक व्यवस्था में सम्मलित है।
भूमिका- परमार शासकों ने अनेक प्रकार के लोकहित कार्य किये हैं। इनमें नगर निर्माण, दुर्ग एवं सुरक्षा, प्राचीरों का निर्माण, जनसामान्य हेतु-सरोवरों का निमार्ण, बांधों का निमार्ण त
भूमिका- परमार शासकों ने अनेक प्रकार के लोकहित कार्य किये हैं। इनमें नगर निर्माण, दुर्ग एवं सुरक्षा, प्राचीरों का निर्माण, जनसामान्य हेतु-सरोवरों का निमार्ण, बांधों का निमार्ण तथा महत्त्वपूर्ण मार्गों पर कूप एवं कूपगारों कि व्यवस्था आदि भी सम्मिलित है।
मन्दिर स्थापत्य के विभिन्न अंगों का वही नामकरण किया गया है, जो मानव शरीर के अंगों के होते है तथा परमार शासकों के सामाजिक कार्यों के अन्तर्गत उस काल की वर्ण व्यवस्था, स्त्रियों की दशा, विवाह की आयु, सती प्रथा तथा बहुविवाह, वस्त्र, आभूषण तथा प्रसाधन, खाद्य व पेय पदार्थ तथा व्रत-त्यौहार-उत्सव आदि आते हैं, इसके अतिरिक्त उस काल की स्थिति को समझने का प्रयास किया गया है।
मालवा से प्राप्त शैव कला से संबंधित देव मूर्तियों एवं शिव लिंगों से स्पष्ट होता है कि इस क्षेत्र के शिल्पियों को प्रतिमा लक्षण संबंधी शास्त्रों का बहुत ज्ञान था। वे प्रतिमा निर
मालवा से प्राप्त शैव कला से संबंधित देव मूर्तियों एवं शिव लिंगों से स्पष्ट होता है कि इस क्षेत्र के शिल्पियों को प्रतिमा लक्षण संबंधी शास्त्रों का बहुत ज्ञान था। वे प्रतिमा निर्माण की प्रचलित परम्परा से पूर्णतः परिचित थे। शिव की विभिन्न मूर्तियों के गढ़ने में शास्त्र निर्दिष्ट परम्पराओं का पालन करते हुए अपनी मौलिक कल्पना शक्ति के आधार पर उनमें नवीनता लाने का प्रयास भी किया गया है।
शिल्प शास्त्रीय विधान की दृष्टि से गुप्त कालीन मूर्तियाँ भी उत्कृष्ट हैं परन्तु पूर्व मध्यकाल की जो प्रतिमाएं हैं उनमें गुर्जर प्रतिहार कला शैली, कलचुरि शैली तथा परमार कला शैली का अनुपम समन्वय देखने को मिलता है।
अधिकांश मंदिर नष्टप्राय अवस्था में हैं। इनके केवल भग्नावशेष प्राप्त होते हैं। अधिकांश मंदिरों के अवशेष गांव के बाहर प्राप्त हैं। प्रायः मंदिरों का निर्माण गाँव के बाहर शान्त स्थान में पहाड़ी या समतल भाग पर प्राप्त होता था, जो मंदिर की पवित्रता, सुन्दरदता एवं सत्यापत्यकार को आसानी से उपलब्ध होने वाले संसाधनों के कारण रहा होगा। प्राप्त मंदिरों से ज्ञात होता है कि मंदिर वास्तु की दृष्टि से भी मालवा के मन्दिरों में शास्त्रीय विधान का पालन किया गया है। मन्दिर शैलियों से निर्मित यहाँ सभी धर्मो के मंदिरों में शैव धर्म के मन्दिरांे की लोकप्रियता अधिक दिखाई पड़ती है।
मालवा की शैव मूर्तियों में लिंग मुख तथा प्रतिमाएं आभूषणों एवं अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित हैं।
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