आप ही से अपने लिए, अपने कर, कुछ लिखना उचित तो नहीं किन्तु आवश्यक सा लगता है। 'परिवा' अपरिपक्व ज्ञान एवं लड़खड़ाती हुई लेखनी की देन है। स्वर बन कण्ठ से फूटे, कलम से कागज पर उतरे शब्दों को सर्व श्री लक्ष्मीशंकर त्रिवेदी, श्री 'अनुपम' जी एवं श्रद्धेय श्री 'चतुरी चाचा' ने संवारा अतः इन त्रय कवियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
पूज्यवर आचार्य परशुराम उपाध्याय, एम.ए. (हिन्दी, मनोविज्ञान), एल.टी. का चिर आभारी हूँ जिनके प्रयास एवं परिश्रम से पुस्तक प्रकाशन