कावेरी नंदन चंद्रा बताती हैं कि, बोल चाल की भाषा में बात
करें तो, जहाँ हम (हम से मेरा मतलब 'मैं' से है) जीवन इकठ्ठा
कर रहें हैं, उस पात्र में एक सूक्ष्म छिद्र है, जिस में से इकठ्ठा
किया हुआ जीवन रह रह कर, कुछ न कुछ, कभी कभी,
थोड़ा थोड़ा कर के रिस्ता जा रहा है, फिर धीमे-धीमे वो पुनः
इकठ्ठा होता है और सौभाग्यवश उसके रह जाने के साथ ही,
रह जाता है, सुने हुए, देखे हुए, सोचे हुए और समझे हुए जीवन
का एक सूक्ष्म ढेर, हम उस