लघु कथा वह सूत्र है जो जीवन की विकटतम परिस्थितियों /समस्याओं से जूझने का हल बताती हैं। आज की वर्तमान भागमभाग भरी जिंदगी को इन्हीं सूत्रों की आवश्यकता है ।संभवतः इसी आवश्यकता ने लघुकथा को जन्म दिया और इसे पाठकों ने इस कदर पालित पोषित किया कि आज यह अपने अपूर्व यौवन काल को प्राप्त हो गई है ।मेरी पहली लघु कथा "पागल" शीर्षक से 90 के दशक में दैनिक नव भारत में प्रकाशित हुई थी ।यह सिलसिला शनै: शनै :कहानियों के साथ-साथ बढ़ता गया ।हर काम का काल निर्धारण ऊपर वाले के हाथ में ही होता है। करीब चार-पांच वर्ष पूर्व से इन लघु कथाओं की पांडुलिपियां फाइल में कैद फड़फड़ा रही थी ,किंतु आज उनके पुस्तक रूप में आने का वक्त आ गया है।
90 के दशक से सृजित इन लघु कथाओं में समय परिवर्तन की पूर्वोत्तर, उत्तरोत्तर धड़कन भी सुनाई देंगी। मैं समझती हूं, लघुकथा का काम केवल सूत्र संकेत करना होना चाहिए। पाठकों को स्वयं सूत्र लगाकर समस्या का समाधान करने के लिए जागरूक करने का काम करती है लघुकथा ।
मेरे लघुकथा संग्रह "चाँटे" की लघु कथाएं ऐसे ही मन को आंदोलित करेंगी। मेरा विश्वास है ।कहां तक सफल हुई हूं ,यह तो आप प्रबुद्ध पाठक वर्ग को ही बताना है। आपकी प्रतिक्रिया का विनम्रता पूर्वक हमेशा स्वागत रहेगा ।