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Subrat SaurabhAuthor of Kuch Woh Pal
यही नाम अपनी इस पाँचवीं पुस्तक को देना चाहूंगी। दर्पण की भांति इसमें सबकुछ यथाचित से ही दिखता है। कुछ भी छिपा नहीं रहता, मन की व्यथा, सोच, पीड़ा सब कुछ तो पारदर्शी है। नारी के मन में, समाज में, परिवेश में जो कुछ भी घटित हो रहा है उसी भांति प्रतिबिंब दिखाता है कोई छद्म रूप नहीं, कोई मुखौटा नहीं। जिस भाव से कविता निकली है यह शाश्वत सत्य है समय, काल, देश सीमा से परे। अन्तर्मन के अनूठे व अछूते मौलिक भाव ! आशा करती हूँ, सुधिजनों का पर्याप्त समय व सहयोग मिलेगा।
आपकी
नीलम खेमका
नीलम खेमका
व्यक्ति में प्रतिभा अपने आप भावना अपना स्थान बना ही लेती है। यही बात मेरे साथ भी चरितार्थ हुई। विद्यालय से अध्यापिकाओं के अतिरिक्त स्नेह व प्रोत्साहन के परिणाम स्वरूप मैं कक्षा 6-7 से ही छुटपुट लिखने लगी थी। इसके साथ ही घर में भी पिताजी का सहयोग मिला और मेरी लेखन यात्रा बचपन से ही शुरू हो गयी। बचपन में हमारे घर में पिताजी शेरों, शायरी, कव्वाली इत्यादि को सुनाकर उसका विस्तार से अर्थ बताते थे जिसके कारण छोटी उम्र से ही मेरे अन्तर्मन में साहित्यिक रुचियों का विकास होने लगा।
विद्यालय जीवन से शुरू हुई लेखन यात्रा विवाहोपरान्त भी अनवरत चलती रही। अपनी माँ (स्वर्गीय चन्दा जयपुरिया) की इच्छपूर्ति हेतु मैंने अपनी लिखी रचनाओं को अपनी प्रथम पुस्तक “उद्गार” में प्रकाशित करवाया। लेकिन दुर्भाग्यवश मेरी दूसरी पुस्तक “अंतस के वातायन” को देखने के लिए माँ जीवित नहीं रहीं। संभवतः मेरी यह पुस्तक हिन्दी साहित्य जगत की पहली रंगीन काव्य पत्रिका भी रही है। मेरो यह लेखन यात्रा आज भी अनवरत जारी है। आस पास के परिवेश व घटनाओं से प्रभावित होकर मैं जो भी लिखती हूँ वह नितांत मौलिक होता है और शायद इसिलिये सुधिजनों के अंतमान को छूने में समर्थ होता है। आप स से सप्रेम विनती है कि आप सब मुझपर अपना स्नेह इसी भाति बनाये रखें।
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