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Hanuman / हनुमान (द्वितीय संस्करण) पौराणिक कथा पर आधारित उपन्यास / (Second Edition) A Novel based on Mythology

Author Name: Pandit. Janardan Rai Nagar | Format: Paperback | Genre : Religion & Spirituality | Other Details

इस उपन्यास में ‘हनुमान’ एक अलौकिक पात्र के रूप में दशार्य गये हैं। ‘‘यह क्या पार्थिव शिशु हैं? नहीं, केसरी!... यह आञ्जनेय, केसरीनन्दन, निस्संदेह सभी देवताओं और शक्तियों के पुंज सा ही अवतरित हुआ है- यह जन्मा नहीं है, केसरी ! आविर्भूत हुआ है।’’ हनुमान स्वयं कहते हैं- ‘‘मैं कहता हूं, राम की राह धरती देख रही है- आकाश देख रहा है। मुझे राम ने कहा- क्षीर सागर में कहा; तू जा, पृथ्वी पर जन्म ले-वानर योनि में और मेरी प्रतीक्षा कर...।’’ हनुमान के हिसाब से राक्षसों के सामर्थ्य ने यह अनिवार्य कर दिया था कि वानर या तो विज्ञान की शक्ति प्राप्त करें और राक्षस बन जायें अथवा आर्यों की तप शक्ति प्राप्त कर अमृत पुत्र बन जायें। इसी प्रकार का आध्यात्मिक चिन्तन एवं रामभक्ति की पराकाष्टा यत्र-तत्र, सम्पूर्ण उपन्यास में  दृष्टव्य है- ‘‘मैं जन्मना-मरना नहीं चाहता। मैं मृत्यु को नहीं चाहता। रोग और शोक से भरे संसार को मैं नहीं चाहता, प्रभो!’’ - शिव मुलके- ‘‘किसे चाहता है तब?’’- श्री राम को, शिव शम्भो! श्री राम को।’’- हनुमान ने कहा।

सार यह है कि इस उपन्यास में रामायणकालीन राक्षस, वानर एवं मानव संस्कृतियों की क्रिया, प्रतिक्रिया एवं अन्त:क्रियाओं का विशद् विवेचन सृजित करने के साथ हनुमान के सम्पूर्ण चरित्र का विशद आख्यान है।

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पं. जनार्दन राय नागर

पं. जनार्दन राय नागर का जन्म उदयपुर में 16 जून, 1911 ई. को हुआ। बहुआयामी प्रतिभा के धनी पं. नागर ने शिक्षा, साहित्य, पत्रकारिता, राजनीति व समाज सेवा आदि क्षेत्रों में अपनी अमिट कीर्ति स्थापित की। गाँधीवादी संस्कारों से दीक्षित व कथा सम्राट प्रेमचन्द्र के आशीष पात्र रहे जनार्दन राय नागर ने मेवाड़ में शिक्षा के प्रसार के उद्देश्य से 1937 में हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना रात्रिकालीन संस्थान के रूप में की। पं. नागर की सतत तपस्या के परिणाम स्वरूप इस संस्था की  उत्तरोत्तर प्रगति हुई वर्तमान में जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय, उदयपुर रूपी वटवृक्ष के रूप में स्थापित है। 

शिक्षा की लोक साधना में लीन जनार्दनराय नागर की ऐकान्तिक साधना साहित्य-सृजन के रूप में निरन्तर गतिमान रही। उन्होंने उपन्यास, कहानी, गद्य-गीत, जीवन चरित्र व काव्य विधाओं में लेखन किया। उनके द्वारा रचित ‘जगद्गुरू शंकराचार्य’ जो कि 5,500 पृष्ठों में समाहित  दस उपन्यासों की श्रृंखला है, जो हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है। उनके ‘राम-राज्य’  के पांच उपन्यास प्रकाशित हो चुके है। जो गद्य-गीत संग्रह, नागर की कहानियां शीर्षक से दो कथा संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनके नाटक ‘आचार्य चाणक्य’, पतित का स्वर्ग’, ‘उदा हत्यारा’, ‘जीवन का सत्य’, अत्यन्त चर्चित रहे तथा मंचित भी हुए।

पत्रकारिता के क्षेत्र में पं. नागर ने अनेक पत्र-पत्रिकाओं की स्थापना, संपादन व संचालन में योगक्षेम निर्वहन किया। ‘मुधमती’, ‘स्वर मंगला’, ‘नखलिस्तान’, ‘बालहित’, ‘कल्कि’, समाज शिक्षण’, ‘शोध पत्रिका’, ‘वसुन्धरा’, ‘जन मंगल’, ‘जन सन्देश’ व ‘अरावली’ आदि पत्रिकाएं उनकी कीर्ति पताकाएं हैं।

राजस्थान साहित्य अकादमी के संस्थापक अध्यक्ष के रूप में उन्होंने राज्य में साहित्यिक उन्नयन व मार्गदर्शन में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह की। वे केन्द्रीय साहित्य अकादमी, हिन्दी सलाहकार समिति (रेल्वे), केन्द्रीय प्रौढ़ शिक्षा सलाहकार समिति आदि के मनोनीत सदस्य रहे। विधानसभा में मावली क्षेत्र से विधायक रहे। उन्हें ‘नेहरू साक्षरता पुरस्कार’ व ‘महाराणा मेवाड़ फाउण्डेशन पुरस्कार’ सहित अनेक सम्मान प्राप्त हुए। इस यशस्वी व्यक्तित्व का 15 अगस्त, 1997 को उदयपुर में निधन हुआ।

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