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Shankar-Shastrarth (Uttarardh) / शंकर-शास्त्रार्थ (उत्तरार्द्ध) Dvitiya Sanskaran / द्वितीय संस्करण

Author Name: Pt. Janardan Rai Nagar | Format: Hardcover | Genre : Religion & Spirituality | Other Details

मनीषी पण्डित श्री जनार्दन राय नागर द्वारा जगद्गुरु शंकराचार्य पर सृजित दस उपन्यासों में से ‘‘शंकर-शास्त्रार्थ’’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र पर विजय श्री वरण करने के कारण ही शंकराचार्य को जगद्गुरु के रूप में ख्याति मिली थी। शंकराचार्य का उद्घोष था- ‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या’’ और मण्डन मिश्र का- ‘‘जगत् सत्यं ब्रह्म मिथ्या’’। शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र को हराने पर सन्यास ग्रहण करना था जबकि शंकराचार्य को हारने पर गृहस्थाश्रम स्वीकार करना था।
कई दिनों तक शास्त्रार्थ चला। जब शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र हारने लगे तब उभय भारती ने शंकराचार्य से आग्रह किया कि अर्द्धांगिनी होने के नाते शंकराचार्य उन्हें भी हरायेंगे तब ही मण्डन मिश्र की पराजय सिद्ध होगी। भारती व शंकराचार्य के मध्य शास्त्रार्थ में भारती द्वारा नर-नारी के सम्पूर्ण पल्लवलित-पुष्पित अनुभूत ज्ञान के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया। इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए शंकराचार्य ने परकाया प्रवेश के माध्यम से राजा अमरूक के मृत शरीर में प्रवेश कर नर-नारी के सम्पूर्ण पल्लवलित-पुष्पित अनुभव प्राप्त किये। तथा पुनः शास्त्रार्थ हेतु लौटे। अन्त में भारती ने मण्डन मिश्र की हार स्वीकार की। मण्डन मिश्र ने सन्यास ग्रहण किया तथा भारती ने देह त्याग दिया। इस प्रकार ‘‘शंकर-शास्त्रार्थ’’ का उत्तरार्द्ध भाग अत्यधिक रोचक एवं महत्वपूर्ण है।

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पं. जनार्दन राय नागर

पं. जनार्दन राय नागर का जन्म उदयपुर में 16 जून, 1911 ई. को हुआ। बहुआयामी प्रतिभा के धनी पं. नागर ने शिक्षा, साहित्य, पत्रकारिता, राजनीति व समाज सेवा आदि क्षेत्रों में अपनी अमिट कीर्ति स्थापित की। गाँधीवादी संस्कारों से दीक्षित व कथा सम्राट प्रेमचन्द्र के आशीष पात्र रहे जनार्दन राय नागर ने मेवाड़ में शिक्षा के प्रसार के उद्देश्य से 1937 में हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना रात्रिकालीन संस्थान के रूप में की। पं. नागर की सतत तपस्या के परिणाम स्वरूप इस संस्था की  उत्तरोत्तर प्रगति हुई वर्तमान में जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय, उदयपुर रूपी वटवृक्ष के रूप में स्थापित है। 
शिक्षा की लोक साधना में लीन जनार्दनराय नागर की ऐकान्तिक साधना साहित्य-सृजन के रूप में निरन्तर गतिमान रही। उन्होंने उपन्यास, कहानी, गद्य-गीत, जीवन चरित्र व काव्य विधाओं में लेखन किया। उनके द्वारा रचित ‘जगद्गुरू शंकराचार्य’ जो कि 5,500 पृष्ठों में समाहित  दस उपन्यासों की श्रृंखला है, चार हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है। उनके ‘राम-राज्य’  के पांच उपन्यास प्रकाशित हो चुके है। चार गद्य-गीत संग्रह, नागर की कहानियां शीर्षक से दो कथा संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनके नाटक ‘आचार्य चाणक्य’, पतित का स्वर्ग’, ‘उदा हत्यारा’, ‘जीवन का सत्य’, अत्यन्त चर्चित रहे तथा मंचित भी हुए।
पत्रकारिता के क्षेत्र में पं. नागर ने अनेक पत्र-पत्रिकाओं की स्थापना, संपादन व संचालन में योगक्षेम निर्वहन किया। ‘मुधमती’, ‘स्वर मंगला’, ‘नखलिस्तान’, ‘बालहित’, ‘कल्कि’, समाज शिक्षण’, ‘शोध पत्रिका’, ‘वसुन्धरा’, ‘जन मंगल’, ‘जन सन्देश’ व ‘अरावली’ आदि पत्रिकाएं उनकी कीर्ति पताकाएं हैं।राजस्थान साहित्य अकादमी के संस्थापक अध्यक्ष के रूप में उन्होंने राज्य में साहित्यिक उन्नयन व मार्गदर्शन में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह की। वे केन्द्रीय साहित्य अकादमी, हिन्दी सलाहकार समिति (रेल्वे), केन्द्रीय प्रौढ़ शिक्षा सलाहकार समिति आदि के मनोनीत सदस्य रहे। विधानसभा में मावली क्षेत्र से विधायक रहे। उन्हें ‘नेहरू साक्षरता पुरस्कार’ व ‘महाराणा मेवाड़ फाउण्डेशन पुरस्कार’ सहित अनेक सम्मान प्राप्त हुए। इस यशस्वी व्यक्तित्व का 15 अगस्त, 1997 को उदयपुर में निधन हुआ।

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