समाज की नजर से एक स्त्री
साहित्य में रचित कहानियाँ हो या कविताएँ, इतिहास में वैदिक काल से ही जितनी भी रचनाएँ अंकित की गयी, सभी में स्त्री की भूमिकाओं का उल्लेख एक अहम भूमिका में निभाया गया है। स्त्रीत्व की परिभाषा से लेकर उसके मान, सम्मान, महत्त्व, वैभव, सौंदर्य को विशाल शब्दों में बड़ी जटिलता के साथ अपार सुंदरता से व्यक्त किया गया है, किंतु निराशा तो यह है, कि जितनी महत्वता किताबों में स्त्री को दी गई वो वास्तविकता में एक स्त्री को कभी प्राप्त ही नही हुई। अपना अस्तित्व, अपनी जगह बनाने के लिए हर मोड़ पर उसे संघर्ष ही करना पड़ा, और प्रत्येक रूप में उसे देनी पड़ती रही परीक्षा। जिसमें तोला जाता है उसे कभी उसकी रुपरेखा से, कभी उसके रंग से, उसके शहरी या ग्रामीण होने से, तो कभी उसके हँसने बोलने से, उसकी सोच उसकी पहचान तो जैसे महत्त्वहीन हो जाती है, और दुनिया के लिए वो बस एक स्त्री होती है एकमात्र ईश्वर द्वारा रचित एक सुंदर काम रूपी देह, जिसका अस्तित्व मजदूरी मात्र रह जाता है, जो निर्मल होती है बहते जल के समान, किंतु स्वयं की इच्छा के अनुरूप उसे बहने भी नही दिया जाता। सभी रंगना चाहते हैं उसे अपने अपने रंग में। आजाद भारत
का ये कैसा दुर्भाग्य है, कि अपार संघर्षो के उपरांत मिली ये स्वतंत्रता महज पुरुषों की विरासत बन कर रह गई। आर्यावत की पावन धरती स्त्रीत्व के लिए बेड़ियों की भाँति स्थिर रह गयी। संभवतः कोई स्त्री शायद ही जान पाई होगी वास्तविक आजादी के उन मुक्त अहसास को।
पंख दिये, आसमाँ दिखाया और रास्ता भी बताया, लेकिन उड़ान भरने से ठीक पहले कुतर दिये उसके पंख या फिर कैद कर दिया उसे इज्जत के दकियानुसी पिंजरे में।