दरअसल, कोयला उद्योग को दो बार आज़ादी मिली। एक आज़ादी 1947 में, जब हमारा देश आज़ाद हुआ और देश के विकास की बागडोर हम भारतीयों के हाथ में आई और दूसरी, जब कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण हुआ। आज़ादी के बाद भी इस उद्योग में उम्मीद के अनुसार तरक्की नहीं दिखी। आर्थिक लाभ के लोभ की मंशा से चंद पैसे वालों ने कोयले की खदानें चलानी शुरू कर दीं। बिलकुल अमानवीय माहौल में खदान मजदूर काम कर, किसी तरह अपना गुजारा कर रहे थे। वर्ष 1972 के मई में पहले कोकिंग कोयले की खदानें और पुनः मई, 1973 में सभी गैर-कोकिंग कोयले की खदानों का राष्ट्रीयकरण हुआ।
हालाकि, यह किताब उद्योग के अंधेरे से उजाले में जाने की कहानी है, लेकिन इसके साथ-साथ आज की स्थिति में भविष्य की रूपरेखा और चुनौती पर भी चर्चा जरूरी महसूस की गयी। एक तरफ देश को ऊर्जा की जरूरत और दूसरी ओर पर्यावरण को बचाना। क्या यह दोनों संभव होंगे? क्या कहते हैं इस उद्योग के कर्णधार और क्या कहती है वर्तमान और भावी पीढ़ी।
कोयला उद्योग की यात्रा और इससे जुड़े आज तक के सभी पहलुओं की कहानी है यह किताब – ‘अंधेरा उजाला’।
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