बोलते पत्थर केवल एक किताब नहीं है, यह एक निमंत्रण है—एक ऐसे सफर का, जो आपको अपने ही पैरों के नीचे दबी उस ज़मीन पर ले जाएगा, जहाँ की गलियाँ हज़ारों साल पहले ज्ञान की कहानियाँ बयां करती थीं। क्या आपने कभी सोचा है कि जिन पत्थरों को आप खामोश समझते हैं, उनके भीतर कितने रहस्य दफ़न हैं? यह उपन्यास आपको उस दौर में ले जाएगा, जब हमारी सभ्यता के गौरवशाली निशान खंडहरों में तब्दील हो चुके थे; भूली हुई लिपियाँ, अनजान भाषाएँ, सम्राटों की गाथाएं और समृद्धि की गूँज धीरे-धीरे इतिहास की धूल में समा गई थी। लेकिन फिर कुछ जज़्बाती लोग आए, जिन्होंने न अपनी नींद की परवाह की, न आराम की, और केवल एक उद्देश्य रखा—इन पत्थरों से हमारी खोई हुई पहचान की फुसफुसाहट सुनना और दुनिया को सुनाना। इस पुस्तक में आपको मिलेगा उनकी संघर्षपूर्ण यात्रा, जिन्होंने पुरातत्व की अनदेखी लिपियों को पढ़कर भारत के गौरवशाली अतीत को जीवंत किया; 'सोने की चिड़िया' भारत की समृद्धि, जो फिर से दुनिया के सामने उजागर हुई; और वह काला अध्याय, जब हमारी धरोहर की अंतरराष्ट्रीय तस्करी हुई, मूर्तियों के हिस्से तोड़े गए, पर इतिहास की आत्मा बनी रही। यह उपन्यास केवल ऐतिहासिक तथ्य नहीं बल्कि भावनाओं, प्रेम, दर्द और जुनून के माध्यम से हमारी विरासत से जोड़ने वाला अनुभव है—एक प्रेम कहानी उन लोगों के साथ, जिन्होंने हमारी पहचान खोजने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया, और उन पत्थरों की कहानी, जिनकी खामोशी में गूँजती हैं अनकही कथाएँ। तो चलिए, इस अद्भुत यात्रा पर मेरे साथ चलिए, पत्थरों के साथ बैठिए और सुनिए… क्या आपको भी उनकी फुसफुसाहट सुनाई दे रही है?
— डॉ. रवीन्द्र पस्तोर
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