देवदूत -2
In this book..., देवदूत और देवलोक शम्भाला
"जब मनुष्यता क्षीण होने लगे, अंधकार बढ़ने लगे, भय और विनाश का ग्रहण धर्म को भयभीत करने लगे। तो इसका तात्पर्य होता है, विनाश! धर्म का, समाज का, और समस्त ब्रह्माण्ड का। इस प्रलय से मनुष्य को बचाने के लिए, किसी न किसी अवतार को अवतरित होना ही पड़ता है। यही कारण है की ईश्वर बार-बार इस धरा पर अवतरित होता है। किसी न किसी रूप में। मनुष्य अथवा ईश्वर। मानव और दानव इन्हीं दोनों के बीच संतुलन स्थापित करने के लिए कभी तो ईश्वर स्वयं अवतरित होता है, और कभी अपने किसी दूत को भेज देता है। देवदूत के रूप में। दुष्टों के संहार हेतु।"
!! जीवन अंतहीन है !!
"संसार में उपस्थित किसी भी वस्तु का अन्त नहीं होता। बस वह परिवर्तित होती हैं। जैसे आत्मा शरीर में, और शरीर आत्मा में...!! परिवर्तन ही संसार का प्रथम और अंतिम नियम है। अतः हम मनुष्य इस नियम से कैसे दूर रह सकते है। हम भी परिवर्तित होते रहे हैं, और होते रहेंगे। होना भी चाहिए। तभी सृष्टि चलती है। सिथिलता गति को बाधित करती है। और जिसमें गति न हो, वह निर्जीव हैं।" परंतु सृष्टि निर्जीव नहीं है, और जीवन भी। जब तक सृष्टि और जीवन है, तब तक बुराई और पाप भी रहेंगे। और इनको समाप्त करने हेतु रक्षकों को अवश्य ही आना पड़ेगा। क्योंकि आत्मा अमर है। नष्ट होने वाला शरीर पुनः प्राप्त करके अपने कर्म में लग जाती है। और कर्म से ही तो संसार चलायमान है। विद्यमान है। और रहेगा, अनंतकाल तक।
कोई भी कहानी कभी समाप्त नहीं होती..., अतः देवदूत कैसे हो सकती है!!!.....!!!! ॐ नमः शिवाय !!!