किसी भी जज़्बात या मौज़ू को जब एक मक़सूस तरीके से स्याहिबंध किया जाए कि उसे आप पढ़ भी सके और गा भी सके तो उसे एक ग़ज़ल की शक्ल मिल जाती है।
एक ख्याल या फिर कई मुक्तलिफ़ ख्याल जब एक कलाम में बांध जाए और उसमें एक तरह से बेहेर का भी इस्तेमाल हो तो आप उसे ग़ज़ल कह सकते हैं। हालांकि ये बात भी आम है कि ग़ज़लों की दुनिया में आए दिन नए नए ईजाद होते रहते हैं। बेहेर की साथ और ख़ास कर ख्यालों के अमेज़े के साथ नए नए तजुर्बे होते ही रहते हैं।
मैं कोई बड़ा शायर तो नहीं पर यूँ ही लिखता हूँ और ये एक कोशिश ही आप कह लीजिये जिसकी वजह से मैं आपके सामने कुछ अपनी ग़ज़लें पेश करने की हिमाक़त कर रहा हूँ।
तभी मैं आपका बहुत बहुत शुक्रगुज़ार हूँ कि आपने इन्हे पढ़ने का इंतेखाब किया है।
ग़ज़लों के उन्वान नहीं होते, ये महज़ ख्यालों के गुलदस्ते हैं। मगर हाँ, मतला, अशार और मक़्ता, ये ग़ज़ल के मुक्तलिफ़ हिस्से हैं। हर ग़ज़ल के मक़्ते में आपको मेरा तखल्लुस "ज़लज़ला" नज़र आएगा। हर शेर को मतले के साथ (ग़ज़ल के पहले शेर के साथ) पढ़ा जा सकता हैं।
मुझे ये भी उम्मीद हैं की पढ़नेवालों में कोई तो ऐसे भी हुनरमंद मौसिक़ होंगे जो कुछ ग़ज़लों को धुनबंध करने का भी नायाब हुनर रखते होंगे। मेरी उनसे गुज़ारिश हैं, कि वो Instagram पर मुझसे राब्ता करें @zalzala_kalyan पर। मुझे बेहद मुसर्रत होगी।
ज़लज़ला
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