शरीर और मन को स्वस्थ रखने के लिए तुलनात्मक दृष्टि से हम देखें तो अन्य कोई व्यायाम पद्धति ऐसी सर्वांगीण एवं उपयुक्त नहीं है जो योगासन, प्राणायाम, ध्यान आदि के समक्ष टिक सके, जिसे सभी व्यक्ति सहज भाव में अपना सके तथा स्त्री-पुरुष, बालक, युवा एव वृद्ध सभी के लिए सुगम सरल एवं उपादेय हो और जिससे शारीरिक विकास, मानसिक शान्ति एव आत्मिक उन्नति हो सके।
यही कारण है कि भौतिक उन्नति एवं प्रकृति उपासना से अतृप्त और विक्षुब्ध जन-मानस का आकर्षण योग की ओर हो रहा है। मेरा यह अनुभव है कि अन्य व्यायाम रजोगुण को बढ़ाने वाले चित्त-विक्षपक तथा वाहय प्रवृत्तिकारक है जबकि आसमनों, प्राणायामों ध्यान के अभ्यास से विक्षिप्त चित्त भी शान्त हो जाता है। योग की क्रान्ति पूरे देश में आ चुकी है । आने वाले समय मे यह और अधिक तीव्र होगा।
‘योग’ एक भारतीय दर्शन या शास्त्र है। योग के छः दर्शन माने जाते हैं। प्रथम – द्वितीय -‘न्याय-वैश्विक तृतीय- चतुर्थ ‘सांख्य योग’, पंचम – छठा है – ‘वेदांत और मीमांशा’.
योग दर्शन पर सबसे अधिक प्रमाणित महर्षि पतंजलि द्वारा लिखित सूत्र माने जाते हैं।
पतंजलि योग सूत्र के अनुसार –
‘योगश्चित वृतिनिरोधः’
अथार्थ- चित्तवृत्तियों को रोकना ही योग है। चित में उठने वाली विचार तरंगों की वृति (भवंर) कहते हैं। इन वृतियों को रोकना योग कहलाता है।
वैसे योग का शाब्दिक अर्थ है – जोड़। वास्तव में यह योग भी जोड़ना ही है।
किसे जोड़ना है? किस से जोड़ना है? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है।
योग का परिणाम होता है – ‘आत्मा और परमात्मा ‘ का सम्बन्ध हो जाना। अतः यह आत्मा का परमात्मा से योग या जुड़ना है।
सहज राजयोग में योग और आसान की संक्षिप्त जानकारी है।