JUNE 10th - JULY 10th
चन्द्रभागा का प्रेत
चंद्रभागा नदी के किनारे हिमालय की तलछटी में बसे उस गढ़वाली गाँव की रातों में अमूमन बहुत जल्दी ख़ामोशी पसर जाती थी । मगर उस रात रिज़ार्ट “अरण्यम” में अभी महफ़िल अपने उरूज़ पर भी नहीं पहुंची थी । उसकी वजह थी कि शाम की शान नजम साहब अब तक नदारद थे । इसलिए महफ़िल की मेज़बान मुक्ता समेत शायर साहब के क़द्रदानों की बेचैनी बढ़ती जा रही थी । नजम साहब नामचीन शायर और कालमनिगार थे । और हाल ही में सबसे कम उम्र में ज्ञानपीठ पुरस्कार हासिल करने वाले साहित्यकार बन गए । सो यही जश्न का भी बहाना था ।
पार्टी के इन्तज़ाम में मुक्ता बेतरह मुब्तिला थी । हर एक चीज़ क़रीने और तरतीब से हो, इसका ख़याल ख़ुद रख रही थी । पूरा रिज़ार्ट उसकी ख़्वाहिश के रंग में रंगा था । मगर किसी ख़लिश से उसे चैन नहीं मिल पा रहा था ।
मुक्ता ने मुझसे कहा कि बस स्टाप पर पहुँचो । नजम साहब किसी भी पल बस पहुँचते ही होंगे ।
रिज़ार्ट से बाहर कार तक पहुँचने में ही मुझे इस बात का एहसास हो गया कि दिसंबर के आख़िर की सर्द वाक़ई सख़्त है । कुल्लू में शाम को एक मुशायरे में शिरक़त के बाद नजम साहब को रात में ऋषिकेश बस अड्डे पर पहुँचना था । बस अड्डे पर उन्हें मुझे रिसीव करना था । मगर रात के ग्यारह बज चुके थे और उनकी कोई ख़बर नहीं.
थोड़ी देर बस स्टाप पे खड़े रहने के बाद इधर-उधर नज़र दौड़ाना शुरू किया । मुझे ताज़्ज़ुब हो रहा था कि इतनी सर्दी में भी लोग इतने कम कपड़े क्यों पहने हुए हैं ? कपड़ों की कई परतों के बावजूद मैं काँप रहा था । सोचा कि एक सिगरेट जलाया जाय । सिगरेट पीते हुए ही अचानक मुझे नजम के मिजाज़ का ध्यान आया । फिर मैं एक-एक करके वहाँ आने और जाने वाली बसों को ग़ौर से देखने लगा । तभी मेरी नज़र एक बस की पीछे की सीट पर पड़ी । नज़म आराम से बैठे हुए थे । चुनांचे उनकी गोद में एक छोटी बच्ची थी । और बग़ल वाली सीट पर एक औरत ।
मैं क़रीब गया और हैरानी से कह उठा “उठेंगे, शायर साहब! आपकी मंज़िल यही है”
मुझे देखकर नज़म चौंक से गए । उन्होने जरा उचटते हुए कहा “हाँ, हाँ, चलते हैं”
गाड़ी में बैठते ही मैंने उनसे पूछा “बस से उतरने का इरादा नहीं था क्या ?”
“नहीं, ऐसा तो नहीं । असल में बच्ची की माँ खिड़की के पास वाली सीट पर बैठी थी । खिड़की में छेद था जिससे तेज़ ठंडी हवा आ रही थी । तो उन्होने मुझसे गुज़ारिश की बच्ची को अपनी गोद में ले लूं । दो घंटे के सफ़र में मैं उससे इतना जुड़ गया मुझे लगा वो मेरी ही बेटी है । उसे छोड़ने का जी नहीं कर रहा था । तुम्हें यक़ीन नहीं आएगा उसे तो ये भी पता था कि नियाग्रा दुनिया का सबसे मशहूर वाटरफ़ाल है!”
“फ़िक्र होती है आपकी । किसी दिन ख़ुद को ना भूल जाइयेगा” मैंने हँसते हुए कहा ।
नजम मेरे अजीज़ दोस्तों में से थे । पत्रकारिता के पेशे में होने की वजह से ढेर सारे साहित्यकारों के साथ मेरा मिलना-जुलना लगा रहता था । और नजम के कालम इतने विचारोत्तेजक होते थे कि मैं चाहता था मेरे अख़बार के लिए वो ज़्यादा से ज़्यादा कंट्रीब्यूट करे । फिर उनकी अच्छी रीडरशिप भी थी ।
मुक्ता उर्दू अदब की बड़ी मुरीदों में से थी । नजम से उसका तआर्रुफ़ मैंने ही करवाया था । मुक्ता का शौक़ था जलसे करना । अदीबों और अदब के दीवानों को दावत देना । ऐसी ही एक रात के ख़ास मेहमान थे नज़म और उनके कई सारे चाहने वाले ।
मुक्ता ने मिलते ही तकल्लुफ़ से पूछा “सफ़र में कोई तक़लीफ़ तो नहीं हुई, जनाब ?”
“अजी, तक़लीफ़ क्यूँ होने लगी! जब ज़हन में आपसे मुलाक़ात का तसव्वुर रौशन हो” नजम ने ज़रा चुहल की ।
नजम के दाख़िल होते ही मानो बुझी शाम फिर से जल पड़ी । फ़िज़ा ख़ुशगवार हो उठी । उन लोगों ने भी फिर से जाम उठा लिया जो शाम से ही पीकर उकता चुके थे । हालांकि इस पूरी शाम मुक्ता के पति नेमिचन्द एक कोने में स्काच लिए मुतमइन बैठे रहे । नजम की आमद पर जाम उठाकर हौले से हेलो किया । नजम और मुक्ता को बात करते हुए कनखियों से देखते रहे ।
नज़म व्हिस्की में आइस डाल रहे थे कि एक मेहमान अपना ग्लास पकड़े आकर लड़खड़ाती हुई ज़बान में कहता है “नजम साहब इतने बड़े शायर हैं आप । एक तौर से अपनी क़ौम के नुमाइंदे । क्या अपने दीन और ईमान का ज़रा भी ख़याल नहीं आपको ?”
“भाई, मैं किसी क़ौम का ठेकेदार नहीं । और शायर तो हमेशा से मज़हब के रवायती उसूलों के ख़िलाफ़ बग़ावत करता रहा है । शेख़ और मौलवी के सिखावन के बरअक़्स हुस्न और शराबनोशी की पैरोकारी” संजीदा सूरत बनाते हुए नजम ने जवाब दिया ।
कांटे से ग्लास बजाते हुए मुक्ता ने मुनादी करने के अंदाज़ में कहना शुरू किया “लेडीज़ एंड जेंटलमेन, मे आई हैव योर अटेन्शन प्लीज । वी हैव अमंग अस मोहतरम नज़म जौनपुरी साहब । मैं इस मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए उन्हें दावत देती हूँ कि अदब के किसी मौजूं पे हमसे ख़िताब करें । और मेरी ख़सूसी गुज़ारिश है कि चूँकि कल ग़ालिब साहब की बरसी है तो उनके ग़ज़ल पर ही कुछ गुफ़्तगू फरमाएँ” मुक्ता के इतना कहते ही महफ़िल में “बिस्मिल्ला” “बिस्मिल्ला” की आवाज़ें गूँज उठीं ।
नजम अनमनी सूरत बनाए धीमे क़दमों से टेम्पररी बनाए गए डायस पर पहुँचे । उन्होने कहना शुरू किया “इतनी तक़रीरें और गुफ़्तगू करने के बाद भी अब भी लोगों से मुख़ातिब होते हुए बेज़ार हो जाता हूँ । शायद ज़्यादातर वक़्त तन्हाई में बिताने की वज़ह से ये मेरे वज़ूद में पैवस्त हो गया है ।
आज बात करते हैं सत्रह शेरों की उस मशहूर ग़ज़ल की जो शायद ग़ालिब की नुमाइंदी रचना है ।
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
जोशे क़दह से बज़्म चरागां किए हुए
ग़ज़ल पर आम ऐतराज़ यह रहता है कि इसकी भावभूमि में यूनिटी का कोई तत्व नहीं पाया जाता । मतलब एक शेर के बाद दूसरे शेर के दरम्यान कोई सिलसिला या रब्त नहीं रहता । दूसरे या तीसरे दर्जे के ग़ज़ल कलामिए के बारे में तो ये बात कही जा सकती है मगर ग़ालिब जैसे ग़ज़लगो के बारे में हरगिज़ नहीं । इस ग़ज़ल में शुरू से आख़िर तक एक ही बुनियादी मज़मून या कैफ़ियत है । बिल्कुल एक राग, म्यूजिक कंपोजिशन या एक फ़िल्म की तरह ।
करता हूँ जमअ जिगरे-लख़्त-लख़्त को
अरसा हुआ है दावते-मिज़्गाँ किए हुए
यही नहीं उनके पुख्ता ज़माने की हर ग़ज़ल क़रीब-क़रीब एक ही कैफ़ियत लिए हुए है । वह बिखरी हुई महफ़िल ग़ालिब के दिलो-दिमाग़ पर छाई हुई है और उनका जी चाहता है उस पुराने मूड और ख़याल की दुनिया को किसी तरीक़े से फिर से ज़िंदा किया जाये । गो कि ये दुश्वार है ।
ये ग़ालिब के दिल का हाल तो है ही उस वक़्त के मुआशरे का बयानिया भी है । दिल्ली उजड़ रही है । मुग़लिया सल्तनत ढह रही है ।”
इस तरह गयी रात तक नजम ग़ज़ल की तकनीकी बारीकियों पर बात करते रहे । शायर के क़द्रदान रोमांचित होकर सुनते रहे । एक बस नेमिचन्द को छोड़कर । जो ख़फ़ा-ख़फ़ा से बैठे ऊँघते हुए दिखने की नाक़ाम कोशिशें करते रहे ।
केदारनाथ और बद्रीनाथ में गिर रही भारी बर्फ़ पौड़ी गढ़वाल की फ़िज़ा में भी घुली हुई थी । रात बेहद रहस्यमय लग रही थी । हम शायर साहब को छोड़ने जा रहे थे । कार मैं ही ड्राइव कर रहा था । हमारी कार होटल आनंदा की तरफ तेज़ रफ़्तार से बढ़ती रही । मुक्ता नजम के साथ बैक सीट पर बैठी थी । उसके घुँघराले बाल कंधे पर फैले हुए थे । वो पहले से कहीं अधिक ख़ुशनुमा लग रही थी । उसने नजम को बताया कि वो उनकी शायरी का गढ़वाली बोली में तर्जुमा करवा रही है ।
“देर रात हो गयी है और काफ़ी ठंड है । उसने तुम्हें नजम के साथ आने दिया । तुम्हारा शौहर सच में भला-मानुष मालूम पड़ता है” मैंने मुक्ता को छेड़ते हुए कहा ।
“नज़म को छोडकर सीधे घर ही जाऊंगी । अब इतना इंतज़ार तो वो कर ही सकते हैं” पति का हवाला देते हुए उसने शरारत वाले अंदाज़ में जवाब दिया ।
नज़म ने बीच में दखल दिया और सधे हुए लहज़े में कहा “बच के रहना मुक्ता, तुम्हारा पति तुम्हारा क़त्ल कर देगा । मैंने उसकी आँखों में ख़ून और उसके सर पर चंद्रभागा का प्रेत सवार देखा है” मुक्ता ने नजम की बात को मामूली समझते हुए हल्के से हंस दिया ।
कुछ दिन बाद नजम अपने घर जौनपुर चला गया । मैं ऋषिकेश में ही रुका रहा और मुक्ता के टच में था । मुक्ता ने बताया कि नजम की एक नज़्म का गढ़वाली में तर्जुमा हो गया है जो गढ़वाल विश्वविद्यालय की पत्रिका में साया हुई है । नज़्म सच में बहोत ख़ूबसूरत थी ।
जब मुक्ता से मिला तो उसने दोहराया क्योंकि नजम बेहतरीन इंसान हैं इसीलिए उम्दा शायर भी ।
कुछ दिनों बाद मुक्ता के एक दोस्त की सरप्राइज़ काल आई । उसने एक भयंकर ख़बर साझा किया ।
“मुझे भरोसा नहीं” मैं बुदबुदाया। मैंने उस रात को याद किया । नज़म को, मुक्ता को, उसके पति को और उस रहस्यमय रात को ।
“बच के रहना, तुम्हारा पति तुम्हारा क़त्ल कर देगा”
मैंने अपने बुरे ख़्वाबों में भी नहीं सोचा था कि मुक्ता का पति ही उसकी जान ले लेगा । अगले दिन सारे स्थानीय अख़बार मुक्ता की मौत की ख़बर से भरे पड़े थे । नेमिचन्द ने अपने जुर्म का इक़बाल कर लिया था ।
मैंने नजम को ख़बर देने के लिए फोन किया । उसने मेरी बात ख़त्म होते ही काल कट कर दिया । जैसे उसे पहले से ही इस बात की ख़बर थी ।
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दीपांकर शिवमूर्ति
#390
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