लघुकथा ही वस्तुतः वह विधा है जो विस्तार नहीं चाहती और स्फीति के पूरी तरह से ख़िलाफ़ है, जहाँ लेखक रतजगा करके आँखें लाल नहीं करता, जहाँ पाठक यह शिकायत नहीं कर पाता कि उसका समय नष्ट हुआ है। संवेदना का एक हल्का-सा उछाल, भावना का कोई भी कण, सम्बन्धों की सूक्ष्मतम भंगिमा तुरत-फुरत एक समर्थ रचना बन जाये, यह लघुकथा में ही सम्भव है। बस लेखक के पास एक दृष्टि और कुछ रचने की कसक होनी चाहिए। जहाँ तक भाषा का मसला है, वह यहाँ भी उसे बेफ़िक्र नहीं छोड़ती, केवल थोड़ी-सी निश्चिन्तता देती है। लघुकथा किसी भी रंग की नहीं होती, परन्तु सारे रंगों को समेट सकती है। वहाँ सुबह का रंग भी हो सकता है, शाम का भी, और चमकती हुई दुपहरिया भी वहाँ आत्मसात् होने के लिए उद्यत रहती है।
लघुकथा की बढ़ती हुई लोकप्रियता और माँग के दृष्टिगत इस संचयन का आना सुखद है। यहाँ संग्रहीत रचनाएँ पाठकों को मनुष्यता और जीवन के दमकते हुए टुकड़ों की मानिन्द नज़र आयेंगी।
सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी
(वरिष्ठ साहित्यकार)
14/34, इन्दिरानगर,
लखनऊ - 226016