प्रारब्ध
॰॰॰॰॰
जैसे भगवान विष्णु के
सहस्त्रनाम हैं
वैसे ही मैंने प्रारब्ध के सहस्त्र रूप
और सहस्त्र रंग देखे हैं,
प्रारब्ध मेरे जीवन में
कभी अभद्र भाषा के रूप में, कभी
झिड़कियों के रूप में, कभी गंदी गालियों के रूप में, कभी लात-जूतों के प्रसाद के रूप में, कभी छलावे के रूप में, कभी निरंतर पराजय और अपमान के रूप में, कभी मेरे साहित्य सृजन को घृणा और वितृष्णा की दृष्टि के रूप में
प्रस्तुत होता रहा है।
११.३०, २१-०५-२०२२
पालम विहार, गुरुग्राम