शास्त्र कहते हैं कि सृष्टि त्रिगुणात्मिका है - सत्त्व, रज, तम तीन
प्रकार की ऊर्जाओं वाली, तीन प्रकार के गुणों वाली। स्पष्ट है कि सृष्टि
में जो कुछ भी होगा, इन्हीं तीन गुणों में किसी न किसी के बाहुल्य वाला
होगा । या मिश्रगुणवाला भी हो सकता है। निश्चित है कि सबकुछ इन्हीं तीनों
से प्रभावित-संचालित है, तो प्रेम भी इनसे अछूता नहीं रह सकता। सात्विक
प्रेम होगा, राजसिक होगा या तामसिक । आमतौर पर जिसे लोग प्रेम कहते-समझते
हैं, वो वस्तुतः प्रेम की छाया भी नहीं है । प्रेम से दूर-दूर का भी
सम्बन्ध नहीं है इसे । हिन्दी वाला प्यार या अंग्रेजी वाला LOVE भले ही
कहा जा सकता है। और यही किया भी जाता है मनुष्यों द्वारा। जो प्रेम को
जानता ही नहीं, वो भला प्रेम क्या करेगा ! प्रेम अति दुर्लभ वस्तु है।
हालाकि वस्तु नहीं है। ये तो अनुभूति है । अभिव्यक्ति की भी गुँजाएश नहीं
— गूंगे के गुड़ की भाँति। शब्दों में इतनी सामर्थ्य ही नहीं कि प्रेम को
परिभाषित कर सके। खूब होगा तो राधा-कृष्ण का उदाहरण देंगे। रासलीला और
गोपियों की बात करेंगे। लेकिन विडम्बना ये है कि वहां भी “देह” के
ईर्द-गिर्द चक्कर काटते रह जायेंगे। काम और भोग की परिणति पर पहुँचाकर
थिर हो जायेंगे, क्यों कि उससे आगे की बात हम सोच-समझ ही नहीं सकते।
कथा-कहानी से इसे समझाया भी नहीं जा सकता । फिर भी धृष्टता की है मैंने —
निरामय में कुछ ऐसे ही प्रेम प्रसंगों को अभिव्यक्त करने की। शक्ति का
तामसिक प्रेम, मीना का राजसिक प्रेम, मीरा का सात्विक प्रेम और इस
त्रिकोण से बिलकुल बाहर कहीं शीर्ष पर पड़ा रह गया है
कमलभट्ट—निरामय(शून्य)बन कर, शून्य ताकते।
श्री कमलेश पुण्यार्क का जन्म बिहार प्रान्त के अरवल जिले के मैनपुरा ग्राम में २०-९-१९५३ई.को शाकद्वीपीयब्राह्मण कुलभूषण पंडित श्री श्रीवल्लभ पाठकजी एवं श्रीमती सरस्वती देवी के घर में हुआ। आपकी शिक्षा मात्र स्नातक की है, किन्तु लेखन और प्रकाशन जगत में काफी पैठ है। आपकी बहुआयामी लेखनी से हिन्दी साहित्य के अतिरिक्त तन्त्र, ज्योतिष, योग, वास्तु, चिकित्सा जगत को काफी कुछ लब्ध हुआ है विगत पचास वर्षों में । आप एक जाने माने ब्लॉगराइटर भी हैं। The Best Hindi Blogs की सूची में आपके बहुचर्चित ब्लॉग www.punyarkkriti.blogspot.com को शामिल किया गया है। आपका एक निजी साइट भी है-www.punyarkkriti.simplesite.com यूट्यूब चैनल पुण्यार्ककृति पर ज्योतिष, वास्तु, योग, तन्त्रादि विविध विषयों पर आपके व्याख्यान भी उपलब्ध हैं। विशुद्ध गृहस्थ आश्रम में रहकर, श्री योगेश्वर आश्रम का संचालन करते हुए, “ सर्वेभवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामयाः” का पावन संकल्प लेकर,योग और नाड्योपचारतन्त्र के प्रचार-प्रसार में आपने काफी भ्रमण भी किया है। लुप्तप्राय विद्याओं को पुनरुज्जीवित करने में आप सतत प्रयत्नशील हैं। ‘सरस्वती’ के वरद पुत्र द्वारा रचित इस शोधपरक पुस्तक का प्रकाशन लोकहित-पथ में मील का एक पत्थर तुल्य है।