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Subrat SaurabhAuthor of Kuch Woh Palगांधी के चम्पारन सत्याग्रह के सौंवें साल में यह समझना बेहद जरूरी है कि आदिवासियों के प्रति गांधी का नजरिया क्या था। क्या उनका दर्शन मौलिक था? क्या आदिवासी लोग वाकई में असभ्य, असंगठित, अंधविश्वासी और नैतिक रूप से पतित थे? पचास के शुरुआती दशक में ‘महात्मा गांधी की जय’ कहने वाले आदिवासी क्या सचमुच में गांधी के प्रभाव में ही राष्ट्रीय आन्दोलन में आए? क्या आदिवासी लोग नेतृत्वविहीन और एक कायर समुदाय हैं, जो अपनी लड़ाई लड़ नहीं पा रहे थे। क्या वास्तव में उन्हें गैरआदिवासी समाजों की तरह ही कोई एक क्लासिकल धीरोदात्त ‘नायक’ और बाहरी ‘नेतृत्व’ की जरूरत थी?
स्वतंत्रता संग्राम के समय से ही सांप्रदायिकता के जिस ‘भगवा धार्मिक उन्माद’ से देश ग्रस्त है, वह गांधी की ही देन है। गांधी के मार्गदर्शन में कांग्रेस ने धर्मांधता की जो फसल बोई, वही अब भाजपा काट रही है। आदिवासी इलाकों में ‘घर वापसी’ गांधी का ही नस्ली कार्यक्रम था। क्योंकि गांधी ने आदिवासियों को असभ्य मानते हुए ‘सभ्यता’ और ‘मुक्ति’ का जो ‘राम’ मंत्र उन्हें दिया था, उसी मंत्र को पिछले सात दशकों में कट्टरवादियों ने विष-बेल की तरह समूचे आदिवासी भारत में फैलाया है। गांधी के नस्लीय व्यवहार की पड़ताल करती यह पहली पुस्तक है जिसमें लेखक ने ऐतिहासिक तथ्यों के सहारे आदिवासियों के संदर्भ में उस राजनीतिक सच को सामने रखा है, जो अभी तक अनकहा है।
अश्विनी कुमार पंकज
1964 में जन्म। डॉ. एम. एस. ‘अवधेश’ और दिवंगत कमला की सात संतानों में से एक। कला स्नातकोत्तर। सन् 1991 से जीवन-सृजन के मोर्चे पर वंदना टेटे की सहभागिता। अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों- रंगकर्म, कविता-कहानी, आलोचना, पत्रकारिता, डॉक्यूमेंट्री, प्रिंट और वेब में रचनात्मक उपस्थिति। झारखंड व राजस्थान के आदिवासी जीवनदर्शन, समाज, भाषा-संस्कृति और इतिहास पर विशेष कार्य। उलगुलान, संगीत, नाट्य दल, राँची के संस्थापक संगठक सदस्य। सन् 1987 में ‘विदेशिया’, 1995 में ‘हाका’, 2006 में ‘जोहार सहिया’ और 2007 में ‘जोहार दिसुम खबर’ का संपादन-प्रकाशन। फिलहाल रंगमंच एवं प्रदर्श्यकारी कलाओं की त्रैमासिक पत्रिका ‘रंगवार्त्ता’ का संपादन-प्रकाशन। अब तक ‘पेनाल्टी कॉर्नर’, ‘इसी सदी के असुर’, ‘सालो’, ‘अथ दुड़गम असुर हत्या कथा’ और ‘आदिवासी प्रेम कहानियाँ’ (कहानी-संग्रह); ‘जो मिट्टी की नमी जानते हैं’, ‘खामोशी का अर्थ पराजय नहीं होता’, ‘वृक्ष नहीं हैं स्त्रियाँ’ (कविता-संग्रह); ‘युद्ध और प्रेम’ और ‘भाषा कर रही है दावा’ (लंबी कविता); ‘अब हामर हक बनेला’ (हिंदी कविताओं का नागपुरी अनुवाद); ‘छाँइह में रउद’ (दुष्यंत की गजलों का नागपुरी अनुवाद); ‘एक अराष्ट्रीय वक्तव्य’ (विचार); ‘रंग बिदेसिया’ (भिखारी ठाकुर पर सं.); ‘उपनिवेशवाद और आदिवासी संघर्ष’, ‘आदिवासी और विकास का भद्रलोक’, ‘आदिवासियत’ (सं.), ‘आदिवासीडम’ (सं. अंग्रेजी); ‘रंग बिदेसिया (भिखारी ठाकुर पर केंद्रित, सं.)’, ‘मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा’ (जीवनी), ‘डायरी वाली स्त्री’, ‘दूजो कबीर’ और ‘रिक्शावाला/विकास डॉट कॉम’ (नाटक) ‘संविधान-सभा में जयपाल’ और ‘हूल डॉक्यूमेंट्स 1855’ (दस्तावेज, सं.), आदिवासी गिरमिटियों पर ‘माटी माटी अरकाटी’ (हिंदी) तथा आजीवक मक्खलि गोशाल के जीवन-संघर्ष पर केंद्रित मगही उपन्यास ‘खाँटी किकटिया’ प्रकाशित।
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